बिच्छूओं के साथ होली : भारत के एक गांव में आज भी यह परम्परा है !
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बिच्छूओं के साथ होली : भारत के एक गांव में आज भी यह परम्परा जीवित है !
भारत के एक गांव में बिच्छूओं के साथ होली खेली जाती है. पहली बार सुनने पर कई लोगों को विश्वास नहीं होता लेकिन यह एक हक़ीक़त है. होली भारत के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है. रंगो का यह त्यौहार देश के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग तरीके से मनाया जाता है. ये त्यौहार अपने साथ ढेर सारा रोमांच लेकर आता है. कहीं रंग गुलाल से तो कहीं कीचड और गोबर से लोग होली खेलते है. मथुरा और राजस्थान की लठमार होली तो काफी प्रसिद्द है. इन सब तरीकों के अलावा एक गांव में बिच्छूओं से होली खेली जाती है. कहाँ और क्यों बिच्छू के साथ लोग होली खेलते है ?
भारत को विविधताओं का देश ऐसे ही नहीं कहा जाता, यहाँ एक त्यौहार को कई ढंग से मनाया जाता है. इसी विविधता का एक रूप है बिच्छूओं के साथ होली खेलना. पुरे देश में लोग एक-दूसरे को रंग, गुलाल लगाकर होली मनाते हैं और मिठाइयों का लुत्फ़ उठाते हैं. भारत के अलग-अलग क्षेत्र में होली से जुड़ी अलग-अलग मान्यताएं हैं. उत्तर प्रदेश के बरसाना, नंदगांव और वृंदावन की लठ्ठमार होली तो विश्वप्रसिद्ध है. उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में दुनिया की सबसे खतरनाक होली खेली जाती है. जिले के सैंथना गांव के लोगों का विश्वास है कि इस दिन बिच्छू उन्हें डंक नहीं मारते और वे बिच्छुओं के साथ अनोखे तरीक़े से होली मनाते हैं.
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इस गांव में होली के मौक़े पर बिच्छुओं की पूजा की जाती है. हर साल यहाँ सिर्फ होली के दिन ही बिच्छू उनको डंक नहीं मारते, इस दिन के अलावा बिच्छू का ज़हर गांव के लोगों को चढ़ता है. इटावा के ताखा तहसील के सैंथना गांव के लोग भैसान देवी के टीले पर जाते हैं जहाँ ढोलक और ताल की आवाज़ पर सैंकड़ों बिच्छू निकलते हैं. इन बिच्छुओं को बड़े, बूढ़ों के साथ बच्चे भी हाथ में लेकर घूमते हैं. हैरानी की बात ये है की बिच्छू भी बड़े आराम से लोगों के शरीर पर रेंगते हैं लेकिन डंक नहीं मारते. एक तरफ बड़े-बूढ़े लोग फाग के गीत गाते हैं तो दूसरी तरफ बाक़ी लोग बिच्छु हाथ पर लेकर रखते हैं.
होली से एक दिन पहले होलिका दहन के दिन हर साल गांव की फ़ाग मण्डली भैसान टीले पर जाती है.
भैसन देवी की पूजा-अर्चना के बाद जिन पत्थरों पर फूल मालायें चढ़ाई जाती है उनके निचे से ढेर सारे बिच्छू निकलते हैं. फाग (लोक गीत) गाने के बाद बिच्छुओं को वहीं छोड़ दिया जाता है. उन पत्थरों को अगर कोई घर लेकर आता है तो घर में भी बिच्छू निकलने लगते है. यह प्रथा कब से चली आ रही है ठीक से किसी को याद नहीं. गांव वाले कहते है की अंग्रेजों के ज़माने से बिच्छू पूजन की परंपरा चली आ रही है लेकिन आज तक फाग के दौरान बिच्छु के काटने की कोई घटना नहीं घटी.
पुरानी जमीदारी प्रथा में यहां पर भैंसों की बलि दी जाती थी। किसी समय यहां पर महष मर्दनी का मंदिर हुआ करता था। उस समय से ही यहां पर बिच्छू निकलते आ रहे हैं। गांव की परंपरा के अनुसार होलीका दहन के दिन शाम 4-5 बजे गांव के बीच रखी होली जलायी जाती है। होलिका दहन के बाद गांव वाले सीधे भैंसान देवी टीले पर पहुंचते हैं। गांव के बुजुर्गों का कहना है की टीले पर बहुत पहले भैंसान देवी का मंदिर था । इस मंदिर में हर साल पूर्णिमा के दिन भैंसों की बलि दी जाती थी। मंदिर के साथ एक कुंड भी था जहाँ बलि वाले भैंसों का रक्त इकठ्ठा होता था. आज टीले पर ना मंदिर है और ना ही वो कुंड. सबसे आश्चर्यजनक बात ये है की होली के बाद किसी भी दिन टीले पर शायद ही कोई बिच्छू दीखता है. Villagers play holi