बिहार में रोजगार, मजाक समझे है क्या ?
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बिहार में रोजगार मजाक समझे है क्या ?
कोरोना ने दुनिया को दिखाया की जिस बिहार ने कभी भारत को विश्व गुरु बनाया, आज उसकी औकात क्या है. बिहार इस देश का इकलौता राज्य है जहाँ से सबसे ज्यादा पलायन (नौकरी के लिए) होता है. बिहार आज जहाँ खड़ा है उसका जिम्मेदार सिर्फ बिहारी वोटर है. दुनिया बदल गई लेकिन बिहार के वोटरों की मानसिकता आज भी जाती से शुरू होकर जाती पर ख़त्म हो जाती है. जेपी आंदोलन के बाद बिहार की राजनीती कांग्रेस के हाथ से निकलकर क्षेत्रीय दलों के पास चली गई. लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद बिहार में क्रन्तिकारी सामाजिक बदलाव हुए. एक गरीब परिवार में जन्मे लालू प्रसाद यादव गरीबों के नेता बनकर 15 साल तक राज किया. बेशक लालू यादव ने सामाजिक बदलाव किये लेकिन आर्थिक मोर्चे पर बचे खुचे बिहार को भी लुटा बैठे. लालू यादव के सत्ता में आने से पहले बिहार में कई फ़ैक्टरियाँ, चीनी मिल और छोटे छोटे उद्योग धंधे चलते थे, तब के हालत के मुताबिक रोजगार के मामले में बिहार बाकि राज्यों के साथ खड़ा था. लेकिन लालू यादव के दूसरे कार्यकाल के बाद उनके पार्टी नेताओ कार्यकर्ताओं सत्ता दुरूपयोग की वजह से बिहार में उद्योग धंधे बंद होने लगे. व्यापारी से लेकर छोटा कारोबारी तक सब बिहार से निकल गए. लालू यादव के शासन में पटना से लेकर गांव के किसी बाजार व्यापारियों से वसूली होती थी. बड़ी कंपनियां सरकार के रवैये से तो छोटे व्यापारी, डॉक्टर, इंजीनीर कानून के मर जाने की वजह से भाग निकले. बिहार के गोपालगंज, में चीनी मिल, डालडा फैक्ट्री, पेपर मिल समेत तमाम उद्योग धंधे बंद हो. सिर्फ बिहार का जिला आसपास के कई जिलों को रोजगार देता था. गोपालगंज एक उदहारण है बिहार में रोजगार के मौत की.
बिहार में रोजगार मजाक समझे है क्या ?
लोगों के सामने जब रोजगार की दिक्कते आई तो पहले उन्होंने मजबूरी में पलायन किया, बाद में इस मजबूरी परम्परा में बदल गई. बाद में लोगों ने बिहार में रोजगार के बारे में सोचना ही छोर दिया और पलायन बिहार की नियति बन गई. पलायन ने सबसे ज्यादा बिहार के सामाजिक सोच पर आघात किया. अब तो आलम ये है लड़कों की शादी की पहली शर्त ये है की अगर सरकारी नौकरी नहीं है तो लड़का बिहार से बाहर कमाता हो. बिहार में रोजगार को लेकर ये सोच पिछले 30 सालों में बनी है. 15 साल बाद बिहारियों में नितीश कुमार के रूप में एक उम्मीद जगाई. नितीश के वोटबैंक के साथ बीजेपी का सवर्ण वोटर जुड़ गया और लालू यादव बादशाहत ख़त्म हुई. नितीश कुमार ने अपने पहले शासन काल में अपराध पर लगाम लगाई, प्रवासी बिहारियों में बिहारीपन का भाव जागृत हुआ. अपराध के साथ साथ नितीश कुमार कॉन्ट्रैक्ट लेवल पर भर्तियां चालू हुई और कुछ लोगों को रोजगार मिला. नितीश कुमार के पहले 5 साल में लोगों को इस बात की ख़ुशी थी, की अपराध पर लगाम लगा.
बिहार में रोजगार
बच्चियों को स्कूल भेजने के लिए ड्रेस से लेकर साईकिल योजना ने उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बना दिया. इस दौरान नितीश कुमार भी निश्चिंत रहे उन्होंने भी बिहार में बेरोजगारी ख़त्म करने का कोई प्रयास नहीं किया. लालू की तरह नितीश भी जानते थे की चुनाव जितने के लिए काम से ज्यादा जाती सबसे अहम् मुद्दा है. लालू यादव के 15 साल राज करने राज़ उनका परखा हुआ मुस्लिम यादव समीकरण था. उसके जवाब में नितीश कुमार ने अनुसूचित जाती में भी दलित और महादलित का बंटवारा कर दिया. पंचायत चुनाव में आरक्षण देकर जातियों को साधने का काम किया, भाजपा का सवर्ण वोटर ना चाहते हुए भी नितीश के साथ रहा और उनकी नैया भी पर लगती गई. इस 30 सालों में दोनों मुख्यमंत्रियों ने बिहार में रोजगार के बारे कभी सोचा ही नहीं. एक ने रोजगार ख़त्म किया तो दूसरे ने सिर्फ सपने दिखाए. नितीश कुमार ने अपने शासन काल में सरकारी नौकरियां तो दी लेकिन एक भी उद्योग लगवाना तो छोड़िये बंद हुए कारखाने भी शुरू नहीं करवा पाए. इसके जिम्मेदार सिर्फ लालू और नितीश नहीं हो सकते, सबसे बड़ी जवाबदेही उन बिहारियों की है जिन्होंने वोट के समय रोजगार-विकास से ज्यादा जाती को महत्त्व दिया. हर बिहारी यह जनता है की लालू हो नितीश दोनों ने जात के दम पर 15 साल राज किया. जब वोटर लूटने को तैयार बैठा है तो नेता तो क्यों चिंता करें ?